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गढ़वाल का इतिहास

अगर बात करे भारतवर्ष की तो हमारे भारतवर्ष का इतिहास इतना पुराना है जितनी की मानव संस्कृति, जितनी पुरानी मानव संस्कृति का इतिहास है उतना ही पुराना इतिहास गढ़वाल के हिमालयी क्षेत्र का भी है. और दस्तावेजों के अनुसार  जैसा की पुरे भारत वंश मैं राजवाड़े हुआ करते थे राजा आज करते थे उसी प्रकार उत्तराखंड के पहाड़ों में सबसे पहले राजवंश ‘कत्यूर राजवंश’ का जिक्र मिलता है. कत्यूरों ने पूरे उत्तराखंड पर सदियों तक राज किया और अपनी निशानी के रूप में लेख, श‍िलालेख और मंदिर छोड़ गए. माना जाता है कि कत्यूर वंश के विघटन के बाद गढ़वाल 64 से भी ज्यादा छोटी-छोटी रियासतों में बंट गया. अभी के समय मैं 52 गढ़ों से मिलकर गढ़वाल 52 गढ़ों का देश के नाम से भी जाना जाता है। 

इन रियासतों पर मुखि‍या या सरदार राज करते थे. ऐसी ही एक रियासत चंदपुरगढ़ भी थी, जिस पर कनकपाल के वंशज राज करते थे. 15वीं सदी (1455 से 1493) में जगतपाल के राज में चंदपुरगढ़ एक शक्तिशाली केंद्र के रूप में उभरा. जगतपाल भी कनकपाल का ही वंशज था. 15वीं सदी के अंत में अजयपाल नाम के राजा ने चंदपुरगढ़ पर कब्जा किया और कत्यूर वंश के विनाश के बाद एक बार फिर पूरे गढ़वाल क्षेत्र को संयुक्त करने में सफल रहा. उसने पूरे क्षेत्र पर कब्जा कर लिया और पहली बार राजा अजयपाल के राज में ही इस क्षेत्र को गढ़वाल नाम से पहचान मिली. आगे चलकर अजयपाल सन 1506 से पहले अपनी राजधानी चंदपुर से देवलगढ़ ले गए और बाद में 1506 से 1519 के बीच उन्होंने श्रीनगर को अपनी राजधानी बनाया.

राजा अजयपाल और उनके वंशजों ने करीब 300 साल तक गढ़वाल पर राज किया. इस दौरान उन्होंने कुमाऊं के राजाओं, मुगलों, सिखों और रोहिल्लाओं के कई आक्रमणों को विफल भी किया. गढ़वाल के इतिहास में एक महत्वपूर्ण और बेहद दर्दनाक घटना तब हुई जब गोरखों ने इस पर आक्रमण किया. गोरखे बेहद क्रूर थे और ‘गोरख्याणी’ शब्द कत्लेआम और सेना के लूटमार का प्रयाय बन गया. डोटी और कुमाऊं पर कब्जा करने के बाद गोरखों ने गढ़वाल पर आक्रमण कर दिया, गढ़वाली सेना के जबरदस्त विरोध और चुनौती पेश करने के बावजूद वे लंगूरगढ़ तक पहुंच गए. इसी समय चीन के आक्रमण की खबर से गोरखों ने अपने आक्रमण की धार को कुछ धीमा कर दिया. 1803 में उन्होंने एक बार फिर आक्रमण तेज कर दिया.

कुमाऊं क्षेत्र को पूरी तरह अपने कब्जे में लेने के बाद गोरखों ने पूरी ताकत के साथ गढ़वाल पर हमला बोल दिया. गोरखों की विशाल सेना के सामने गढ़वाल के 5 हजार सैनिक टिक नहीं पाए. इस बीच राजा प्रद्युमन शाह देहरादून भाग गए ताकि गोरखों के ख‍िलाफ रक्षा की नीति बना सकें, लेकिन गोरखों की ताकत के आगे सब बेकार साबित हुआ. इस जंग में गढ़वाली सेना को बहुत ज्यादा नुकसान हुआ और स्वयं राजा प्रद्युमन शाह ‘खुदबुद’ की लड़ाई में मारे गए.

सन 1804 में गोरखों ने पूरे गढ़वाल पर कब्जा कर लिया. अगले करीब 12 साल तक पूरे उत्तराखंड में गोरखों का क्रूर शासन रहा. इसके बाद 1815 में अंग्रेजों ने गोरखों के जबरदस्त विरोध और चुनौती पेश करने के बावजूद उन्हें यहां से खदेड़ कर काली नदी के पार भेज दिया. 21 अप्रैल 1815 को अंग्रेजों ने पूरे क्षेत्र को अपने कब्जे में ले लिया, हालांकि यह भी गुलामी ही थी लेकिन अंग्रेजों ने गोरखों की तरह क्रूरता नहीं दिखाई.

अंग्रेजों ने पश्चिमी गढ़वाल क्षेत्र अलकनंदा और मंदाकिनी नदी के पश्चिम में अपना राज स्थापित कर लिया और इसे ब्रिटिश गढ़वाल कहा जाने लगा. इसमें देहरादून भी शामिल था. बाकी बचे गढ़वाल को अंग्रेजों ने यहां के राजा सुदर्शन शाह के हवाले कर दिया. राजा ने टिहरी को अपनी राजधानी बनाया. शुरुआती दौर में अंग्रेजों ने कुमाऊं और गढ़वाल के प्रशासन को संभालने के लिए एक ही कमिश्नर के अंतर्गत रखा, जिसका मुख्यालय नैनीताल था. बाद में 1840 में गढ़वाल क्षेत्र को अलग जिला बनाकर असिस्टेंट कमिश्नर के अंतर्गत दे दिया, जिसका मुख्यालय पौड़ी बनाया गया.

आजादी के समय भी गढ़वाल, अलमोड़ा और नैनीताल जिलों का प्रशासन कुमाऊं क्षेत्र का कमिश्नर संभालता था. 1960 के दशक की शुरुआत में गढ़वाल जिले से काटकर एक और जिला चमोली बनाया गया. 1969 में गढ़वाल डिवीजन बना और इसका मुख्यालय पौड़ी को बनाया गया. 1998 में पौड़ी जिले के खिरसू ब्लॉक से 72 गांवों को अलग करके एक नए जिले रुद्रप्रयाग का गठन किया गया. इस तरह से पौड़ी जिले ने अपना आधुनिक स्वरूप लिया.

जानकारी - उत्तराँचल टुडे। 
गढ़वाल का इतिहास गढ़वाल का इतिहास Reviewed by merapahaduk on October 27, 2016 Rating: 5

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